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ध्रुवस्वामिनी (सूचना) विशाखदत्त-द्वारा रचित 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक के कुछ अंश 'शृंगार-प्रकाश' और 'माट्य-दर्पण' से सन् १९२३ की ऐतिहासिक पत्रिकाओं में जब उद्धृत हुए तब चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के जीवन के सम्बन्ध मे जो नयी बातें प्रकाश में आई, उनसे इतिहास के विद्वानों में अच्छी हलचल मच गई। शास्त्रीय मनोवृत्तिवालों को, चन्द्रगुप्त के साथ ध्रुवस्वामिनी का पुनर्लग्न असम्भव, विलक्षण और कुरुचिपूर्ण मालूम हुआ। यहां तक कि आठवी शताब्दी के सञ्जन ताम्रपत्र हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरद्देवीं स दीनस्तथा लक्षं कोटिमलेखयन् किल कलो दाता स गुप्तान्वयः के पाठ में सन्देह किया जाने लगा। किन्तु जिस ऐतिहासिक घटना का वर्णन करते हुए सातवी शताब्दी में बाणभट्ट ने लिखा है 'अरिपुरेच परकलत्रकामुकं कामिनीवेशश्चन्द्रगुप्तो शकपतिमशातयत् ।' और ग्यारहवी शताब्दी में राजशेखर ने भी लिखा है -- दत्वारुद्ध गति खसाधिपतये देवी ध्रुवस्वामिनीम् । यस्मात् खंडित साहमो निववृते श्रीरामगुप्तोनृपः । वह घटना केवल जनति कह कर नही उड़ाई जा सकती। विशाखदत्त को तो श्री जायसवाल ने चन्द्रगुप्त की सभा का राजकवि और उसके 'देवीचन्द्रगुप्त' को जीवनचित्रण नाटक भी माना है। यह प्रश्न अवश्य ही कुछ कुतूहल से भरा हुआ है कि विशाखदत्त ने अपने दोनों नाटकों का नायक चन्द्रगुप्तनामधारी व्यक्ति को ही क्यों बनाया। परन्तु श्रीतलंग ने तो विशाग्वदत्त को सातवी शताब्दी के अवन्तिवर्मा का आश्रित कवि माना है। क्योंकि 'मुद्राराक्षस' की किसी प्राचीन प्रति में उन्हें मुद्राराक्षस के भरत वाक्य 'प्रार्थिवश्चन्द्रगुप्तः' के स्थान पर 'प्राथिवोऽवन्तिवर्मा' भी मिला। विशाखदत्त के आलोचक लोग उसे एक प्रामाणिक ऐतिहासिक नाटककार मानते है। उसके लिखे हुये नाटक मे इतिहास का अंश कुछ न हो, ऐसा तो नही माना जा सकता। राखालदास बनर्जी, प्रोफेसर अल्तेकर और श्रीजायसवाल इत्यादि ने, अन्य प्रामाणिक आधार मिलने के कारण ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त के पुनलंग्न को ऐतिहासिक तथ्य मान लिया है। यह कहना कि रामगुप्त नाम का कोई राजा गुप्तों की वंशावली मे नही मिलता और न किती अभिलेख में उसका वर्णन आया है, कोई अर्थ नहीं रखता। समुद्रगुप्त के शासन का उल्लंघन करके, कुछ दिनों तक साम्राज्य में उत्पात मचाकर, जो राजनीति के क्षेत्र में अन्तर्धान ८२: प्रसाद वाङ्मय