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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/८३

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हो गया हो; उसका उल्लेख वंशावली में न मिले तो कोई आश्चर्य नहीं। हां, भण्डारकरजी तो कहते है कि उसके लघु-काल-व्यापी शासन का सूचक सिक्का भी चला था। 'काच' के नाम से प्रसिद्ध जो गप्त सिक्के मिलते है, वे रामगुप्त के ही हैं। राम के स्थान पर भ्रम से काच पढा जा रहा था। इसलिए बाणभट्ट की वर्णित घटना अर्थात् स्त्री-वेश धारण करके चन्द्रगुप्त का पर-कलत्र-मामुक शकराज को मारना और ध्रुवस्वामिनी का पुनर्विवाह इत्यादि के ऐतिहासिक मत्य होने मे सन्देह नहीं रह गया है। और मुझे तो इसका स्वयं चन्द्रगप्त की ओर से एक प्रमाण मिलता है। चन्द्रगुप्त के कुछ मिक्कों पर 'रूपकृती' शब्द का उल्लेख है। रूप और आकृति का जॉन एलन ने खीच-तानकर जो शारीरिक और आध्यात्मिक अर्थ किया है, वह व्यर्थ है। 'रूपकृती' विरुद का उल्लेख करके चन्द्रगप्त अपने उस साहमिक कार्य को स्वीकृति देता है जो ध्रुवस्वामिनी की रक्षा के लिए उसने रूप बदलकर किया है, और जिसका पिछले काल के लेखको ने भी समय-समय पर गमर्थन किया है। विशाखदत्त के 'देवीचन्द्र गुप्त' नाटक का जितना अंश प्रकाश में आया है, उसे देखकर अबुलमाली की बर्कमारिम वाली था का मिलान करके कई ऐतिहासिक विद्वानों ने शास्त्रीय दृष्टिकोण रखनेवाले आलोचकों को उत्तर देते हुए ध्रुवदेवी के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य तो मान लिया है, किन्तु भण्डारकरजी ने पराशर और नारद की स्मृतियों से उस काल की सामाजिक व्यवस्था म पुनर्लग्न होने का प्रमाण भी दिया है। शास्त्रों मे अनुकूल और प्रतिकूल दोनों तरह की बाते मिल सकती है, परन्तु जिस प्रथा के लिये विधि और निषेध दोनों तरह की सूचनाये मिलें; तो इतिहास की दृष्टि से वह उस काल में मम्भाव्य मानी जायगी। हां, समय-समय पर उनमें विरोध और सुधार हुये होंगे और होते रहेगे। मुझे तो केवल यही देखना है कि इस घटना की सम्भावना इतिहास की दृष्टि से उचित है कि नही। भारतीय दृष्टिकोण को सुरक्षित रखने वाले विशाखदत्त-जैसे पण्डित ने जब अपने नाटक में लिखा है - रम्यांचारतिकारिणी च करुणाशोकेन नीता दशाम तत्कालोपगतेन राहुशिरसा गुप्तेव चांद्रीकला । पत्युः क्लीवजनोचितेन चरितेनानेव पुसः सतो लज्जाकोपविषाद भीत्यरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यते ॥ तो उस नाटक के मम्पूर्ण सामने न रहने पर भी, जिससे कि उसके परिणाम का निश्चित पता लगे, उस काल की सामाजिक व्यवस्था का तो अंशतः स्पष्टीकरण हो ही जाता है। नारद और पराशर के वचन - अपत्यार्थम् स्त्रियः सृष्टा. स्त्री क्षेत्रं बीजिनो नरा: क्षेत्रं बीजवते देयं नाबीजी क्षेत्रमर्हति। (नारद) ध्रुवस्वामिनी-सूचना : ८३