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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/८४

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नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवे च पशिते पती। पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते। (पराशर) के प्रकाश में जब 'देवीचन्द्रगुप्त', नाटक के ऊपरवाले श्लोक का अर्थ किया जाय तो वह घटना अधिक स्पष्ट हो जाती है। रम्या है किन्तु अरतिकारिणी है, में जो श्लेष है, उसमें शास्त्र-व्यवस्था जनित ध्वनि है । और पति के क्लीव जनोचित चरित का उल्लेख, साथ-ही-साथ क्षेत्रीकृता-जैसा पारिभाषिक शब्द, नाटककार ने कुछ सोचकर ही लिखा होगा। भण्डारकर और जायसवालजी, दोनों ने ही अपने लेखों में विधवा के साथ पुनर्लग्न होने की व्यवस्था मान कर ध्रुवदेवी का पुनर्लग्न स्वीकार किया है। किन्तु स्मृति की ही उक्त व्यवस्था मे अन्य पति ग्रहण करने के लिये जिन पांच आपत्तियो का उल्लेख किया है, उनमें केवत मृत्यु होने पर ही तो विधवा का पुनलंग्न होगा। अन्य चार आपत्तियां तो पति के जीवन काल मे ही उपस्थित होती । उधर जायसवालजी चन्द्रगुप्त द्वारा गमगुप्त का वध भी नहीं मानना चाहते, तब 'देवीचन्द्रगुप्त' नाटक की कथा का उपसंहार कैसे हुआ होगा ? वैवाहिक विषयों का उल्लेख स्मृतियों को छोड़कर क्या और कही नही है ? क्योंकि स्मृतियों के सम्बन्ध में तो यह भी कहा जा सकता है कि वे इस युग के लिये नहीं, दूसरे युग के लिये हैं। परन्तु इसी कलियुग के विधान-ग्रन्थ आचार्य कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' मे मुझे स्मृतियों की पुरिट मिली। किस अवस्था में एक पति दूमरी स्त्री ग्रहण कर सकता है, इसका अनुसन्धान करते हुए, धर्मस्थीय प्रकरण के विवाह संयुक्त में आचार्य कौटिल्य लिखते हैं वर्षाण्यष्टावप्रजायमानामपुत्राम् बंध्यां चाकांक्षेत् दशविन्दु, द्वादश कन्या प्रसविनीम् । तत: पुत्रार्थी द्वितीयां विदेत् । आठ वर्ष तक वन्ध्या, दम वर्ष विन्दु अर्थात् नश्यत्प्रसूति, बारह वर्ष तक कन्या प्रसविनी की प्रतीक्षा करके पुत्रार्थी दूमी स्त्री ग्रहण कर सकता है। पुरुषों का अधिकार बताकर स्त्रियों के अधिकार की घोषणा भी उसी अध्याय के अन्त में है । नीचत्वम् परदेशम् या प्रस्थितो राजकिल्विषी। प्राणाभिहंत। पतितस्त्याज्यः क्लीवोपिवापतिः ।। इसका मेल पराशर या नारद के वाक्यों से मिलता है। इन्ही अवस्थाओं में पति को छोड़ने का अधिकार स्त्रियों को था। क्योंकि 'अर्थशास्त्र' में, आगे जो मोक्षDivorce का प्रसंग आता है, उममे न्यायालय सम्भवत. 'अमोक्षा भर्तुरकामस्य द्विषती भार्या भार्यायाश्च भर्ता, परस्परं द्रुपान्मोक्ष:' के आधार पर आदेश देता था। किन्तु माधारण द्वेष से भी जहाँ अन्य चार विवाहों मे मोक्ष हो सकते थे; वहां धर्मविवाह मे केवल इन्ही अवस्थाओ मे पनि त्याज्य ममझा जाता था। नहीं तो 'अमोक्षोहि ८४: प्रसाद वाङ्मय