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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/९०

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इतना था सौहार्द सभी हम एफ थे। एक अकेले हमीं रहे न अनेक थे।' करुणा का था राज्य, प्रेम ही धर्म था। शुद्धानन्द-विनोद, एक ही कर्म था॥ न था किसी में मोह कभी न विवाद था। मिलता अविरत स्वच्छ सुधा का स्वाद था। छाया-हीन न वृक्ष न गरमी आह की। नहीं धारणा बिना वृक्ष के राह की॥ भीति शीत की थी न मार्ग की यन्त्रणा। यह कुचक्रमय चाल न थी न कुमन्त्रणा.॥ तप्त हृदय का नहीं उष्ण निश्वास था। शुद्ध प्रेममय भाव सत्य विश्वास था। ज्वाला का सन्ताप आदि में था सहा। मार्ग मध्य इससे न कभी खाली रहा । ज्वाला में ही अन्त अहो यात्रा बड़ी। ऐसा अद्भुत मार्ग समस्या है कड़ी॥" पूर्व स्मृति का चित्र स्पष्ट कर लो अभी। बड़े दुखद ये ध्यान न होंगे फिर कभी॥ सहज प्रेम प्रतिबिम्ब सभी पर डाल लो। सुगम मार्ग का चिह्न मनोज्ञ निकाल लो॥ जयशंकर 'प्रसाद' १. तु० कामायनी-आनंद मर्ग-'हम केवल एक हमी है' । चन्द्रगुप्त के चतुर्थ अंक, पंचम दृश्य मे चाणक्य का कथन;-अवलोक्य द्वितीय खण्ड पृष्ठ ६३० में ब्राह्मण किंवा विशुद्ध मानव-सत्त्व की उद्गम भूमि का ऐमा चित्र-जो ई० १९१२ के पूर्व अंकित हुआ किन्तु सरस्वनी पत्रिका द्वारा मई १९१२ मे rejected हो गया। (सम्पादक) ९.: प्रसाद वाङ्मय