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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/९१

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महाराणा अमर सिंह चिर-प्रसिद्धः मेवाड़-भूमि का नाश हुआ है, भारत-स्वाधीनता-सूर्य का ह्रास हुआ है। ऐसा है निस्तब्ध रण-स्थल जैसे सागर, क्रन्दन का भी शब्द नहीं. जीवित न एक नर। अति पवित्र गिल्लोट-कुल-त्राला का निर्वाण है, अंगारे से एक ही अमर सिंह सप्राण हैं। देखी जब यह दशा द कोई संग न साथी, "हीं प्रबल वे वीर, नही हैं घोड़े हाथी। थोड़े ही से वीर बचे जो रहे नगर में, रक्षा महिलागण की करते सन्तःपुर में। राज-कुंवर इक कर्ण है शिशोदिया के वंश में, सर्वनाश करना नहीं ठीक किसी भी वंश में॥ प्रबल-प्रताप प्रताप सिंह का पुत्र अमर था, राजपूत-कुल चड़ामणि का हृदय निडर था। बढ़ा यवन-दल ओर अतुल उत्साह बढ़ा था. चढ़ा अश्व पर वीर वीर-मद-रंग चढ़ा था। धीर शान्त सा यवन दल पारावार अपार था, अमर सिंह उस चमू में बड़वानल साकार था। विचलित हआ न वीर खड़ा था डट कर रण में, वीर-वदन पर विभा बढ़ रही थी प्रति क्षण में। मांगा समर सहर्ष यवन-दल-सेनापति से, उसने उत्तर दिया मधुर, मस्त न-अवनति से। "वीर, तुम्हारी यह छटा प्रति क्षण दर्शन योग्य है, वीर तुम्हारे सदृश जो रण-सुख उनके भोग्य हैं। महाराणा अमर सिंह : ९१