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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/९२

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"आज आपके साथ वीर नरवर बलशाली, रही न सेना साथ कोश भी होगा खाली किये युद्ध उत्साह-सहित हैं सत्रह तुमने, वीर-पुत्र-कर्तव्य प्रकट दिखलाया तुमने। ऐसे देव-शरीर पर वार न करता हूं कभी, अनुपम आत्मोत्सर्ग का आदर करते हैं सभी॥ "जहांगीर नहिं हृदय-हीन जो नहिं मानेंगे,' अमरसिंह से सन्धि तुरत करना ठानेगे। हुआ नहीं कुछ अभी, बात यह मान लीजिये दिल्लीश्वर प्रेरित सादर सम्मान लीजिये। माना मैंने आपका यह हठ अति अनिवार्य है, किन्तु सन्धि करना सदा राजाओं का कार्य है। नहीं, कभी यह नहीं हुआ है, कभी न होगा, अमरसिंह स्वाधीन, कभी आधीन न होगा। युद्ध, युद्ध बस युद्ध शीघ्र तलवार तलाओ, करना हो जो तुम्हें तुरत करके दिखलाओ। रक्षा अपनी कीजिये, भ्रमती है नहिं शुद्ध मतियों कह करके अमर ने खड्ग चलाया क्षिप्रगति ॥ बचा तुरत निज अंग हटा खुर्रम उस थल से, देखा यह उन्माद आर्द्र दुग हुये सुजल से। कहा, देखकर सैन्य ओर "इक वार न होवे, खड़े रहो सब लोग खुली तलवार न होवे अमरसिंह ने यह सुनी आज्ञा खुर्रम धीर की, स्थगित हुये तत्काल ही बुद्धि भ्रमी रणधीर की। १. इस कविता में सरस्वती मम्पादक ने संशोधन का जो माहस किया था उसका नमूना-इस पंक्ति को इस प्रकार व्याकुलित किया गया 'जहाँगीर है हृदययुक्त कहना मानेगें। २. यह पंक्ति ऐसे बनाई जा रही है--'किन्तु सन्धि उद्योग भी राजाओं का कार्य है।' (सम्पादक) ९२: प्रसाद वाङ्मय