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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/९८

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छाया दिखलाई पड़ती है। सिकन्दर उसी स्थान पर खड़ा हुआ कुछ सोच रहा है। अकस्मात उसके मुख से एक प्रसन्नता सूचक चीत्कार निकली जिसे छिपाने के लिए वह बहुत ही व्यग्र हो गया और सम्हल कर उसने अपनी चढ़ी हुई कमान पर तीर चढ़ाया, लक्ष्य अव्यर्थ और वाण विषमय था। दुर्ग पर का मनुष्य चीत्कार करता हुआ नीचे गिर पड़ा। सिकन्दर जो कि उसी जगह खड़ा था तत्काल ही उस व्यक्ति के शरीर को खींचकर समीप की एक झाड़ी में ले गया और उसी अन्धकार में शीघ्रता के साथ उस अफगानी वीर के वस्त्रों को पहन लिया और झाड़ी के बाहर निकल आया। __ चीत्कार का शब्द सुनकर एक प्रहरी प्रकाश डाल कर नीचे की ओर देखने लगा उसे एक उन्हीं का सिपाही दिखाई पड़ा जिसे दुर्ग पर से गिरा हुआ समझ कर उसने एक रस्सी ऊपर से लटका दी, नीचे का सिपाही एक आगन्तुक से कुछ बात करके ऊपर निश्शंक चढ़ गया, यह आगन्तुक देर से उसी जगह अन्धकार मे छिपा था। सुन्दरी सर्दार पत्नी दुर्ग के सुसज्जित प्रकोष्ठ में बैठी हुई अपने नीले रंग के सुन्दर वस्त्र को देखती जाती है और कभी अपना मुख दर्पण में देखकर अपनी सुन्दरता से आप ही आप प्रसन्न होकर मुस्किरा देती है, मदिरा से घृणित नेत्र उसके मुख को और भी सौन्दर्यमय बनाये हुए हैं। अकस्मात रमणी "प्यारे सर्दार" कहती हुई आलोक-रजित दर्पण की ओर से घूम पड़ी, पर उसकी प्रसन्नता सन्नाटे से बदल गई क्योंकि वह अश्वक सर्दार के वेश में सिकन्दर था। ___दोनों एक दूसरे की ओर निनिमेष दृष्टि से देखने लगे, सिकन्दर का मानुषिक सौन्दर्य कुछ कम नहीं था। __अहा ! सौन्दर्य भी कैसा है। कैसा ही मनुष्य क्यों न हो, क्या उस ओर से यह अपनी दृष्टि शीघ्रता से हटा सकता है ? किन्तु रमणी सम्हल कर बोली-'तुम कौन हो ?' उत्तर मिला-शाहंशाह सिकन्दर'। रमणी ने पूछा --'यह वस्त्र तुम्हें कैसे मिला। सिकन्दर-'इसके पहनने वाले को मार डालने से ।' 'रमणी के मुख से चीत्कार के साथ ही निकल पड़ा- ' क्या सर्दार मारा गया, अब वह इस लोक में नहीं है। सिकन्दर के 'हां' कहते ही रमणी ने अपना मुख दोनों हाथों से ढांप लिया, पर वह अवस्था बहुत देर तक नही रही, शीघ्रता से रमणी ने अपने पास ही से छरा उठा लिया, सिकन्दर ने हंसकर हाथ पकड़ लिया और कहा -'सुन्दरी ! एक जीव के लिए तुम्हारी दो तलवारें बहुत थी, तीसरे की क्या जरूरत ।' अब रमणी की वह हिंसामयी मूत्ति न रही, उसकी तेजस्विता ढीली हो गई और उसके हाथ का छुरा भी गिर पड़ा, वह घुटनों के बल बैठ गई। सिकन्दर का मुख गम्भीर और रमणी का वदन और करुणामय हो गया। ९८:प्रसाद वाङ्मय