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देवगढ़ की पुरानी इमारतें


नग्न शवर और पर्ण-शबर। उस समय जो बिलकुल ही नङ्ग रहते थे वे नग्न और जो अपनी कमर मे पत्ते लपेटे रहते थे वे पर्ण-शबर कहलाते थे। हजारों वर्ष हो गये, परन्तु इन लोगों की दशा में विशेष अन्तर नहीं हुआ। अब तक ये प्रायः दिगम्बर बने हुए जङ्गलों में घूमा करते हैं और कन्द, मूल, फल तथा मांस से किसी प्रकार अपना पेट पालते हैं। अब ये लोग धनुर्बाण और भाला नहीं बाँधते। इनके शस्त्र अब कुल्हाड़ी और हॅसुवा ही हैं।

देवगढ़ प्रान्त में पहले सहरियों ही का आधिपत्य था। उन पर गौड़ लोगों ने विजय पाया। गोंड़ों के अनन्तर देवगढ़ गुप्तवंशी राजों के अधिकार में आया। स्कन्दगुप्त आदि इस वंश के राजों के कई शिलालेख अब तक देवगढ़ में विद्यमान हैं। गुप्तवंश के अनन्तर कन्नौज के भोजवंशी राजों ने इस प्रान्त को जीता। देवगढ़ मे जैनियों का एक बहुत बड़ा मन्दिर है। उसके तोरण में, ८८३ ईसवी का एक लेख, राजा भोजदेव के नाम से खुदा हुआ है। भोज-वंशी राजों का प्रतापसूर्य निस्तेज होने पर, ८३१ से १५६६ ईसवी तक, चन्देलवंशी अनेक नरेशों ने इस प्रान्त को अपने अधिकार में रक्खा । ललितपुर के आस-पास इस वंश के राजों के अनेक शिलालेख पाये जाते हैं। इस वंश की राजधानी महोबा थी। इस घराने के वंशज ललितपुर के पास खजुराहो में अब तक विद्यमान हैं। चन्देलो के अनन्तर मुसलमानों का