प्राचीन पंडित और कवि विजयसेन के विपय में है । ये च श्रीमदकच्चरेण विनयाढाकारितः सादर श्रीमल्लाभपुर पुरग्दरपुरं व्यक्तं सुपर्वोत्करै । भूयोभिर्वतिभियुधैः परिवृता गादलंचक्रिरे सामोदं सरस सरोरुहवन लीलामराला इव ॥ श्रस्तु। पुराने जैन पडितों की चदौलत संस्कृत भाषा के साहित्य की बहुत वृद्धि हुई और इस देश में पशुहिंसा की कमी भी बहुत कुछ हुई । श्रतएव इस विषय में वे सर्वथा अभिनदनीय हैं। ऊपर, एक जगह, विजयप्रशस्ति-नामक महाकाव्य का उरलेख टुश्रा है। उसमें २१ सर्ग है। हीरसोभाग्य की तरह उसमें भी हीरविजय सूरि का चरित है। साथ ही, अंत के पुछ सगौं में, विजयसेन सूरि और निजयदेव सूरि का भी वर्णन है। इसके कर्ता का नाम हेमविजय गणि है। परंतु समप्र फाज्य इनका लिखा हुश्रा नहीं । सोलह सर्ग लिख चुफने पर इनकी मृत्यु हो गई। अतपत्र अवशिष्ट पाँच सर्ग इनके गुरुभाई गुणविजय गणि ने बनाकर काव्य-पूर्ति की। गुणविजय ने इसकी एकटीशा भी, विमाम-सवत् १६८ मा बनाई। यद सटीफ-फाय बनारस की जैन-यशोविजय पाट शाला के अधिकारियों ने छपायर प्रकाशित किया है। संपादन यदी योग्यता में एया। पंडित हरगोविंद घेघरदास ने इसका सशोधन किया है। कोई सात सौ पृष्ठों
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