१६ प्राचीन पंडित और कवि पूछा-"पंडितजी यह क्या कह रहा है" ? आपने तत्कात उत्तर दिया- द्वार दमामे ना वजत कहत पुकार-पुकार । हरिन भजे ते पशु भये परत चाम पर मार ॥ इसे सुनकर नवाव बहुत सुश हुश्रा। दौलतपुर से पॉच मील पर मुगरिमऊनामक एक अच्छी रियासत है। इसके तअल्लुकेदार राजा कहलाते है। चैसों में अस्ले इन्ही को, इस तरफ, राजा को पदवी प्राप्त है। जब तक ये अपने अंगूठे से तिलक नहीं करते तब तक दूसरे तअल्लुकदारों या राजाओं का तिलकोत्सव सिद्ध नहीं माना जाता। विद्रोह के वक्त यहाँ के तत्कालीन राजा ने अँगरेजों की बहुत सरख्याही की। इस उपलक्ष्य में उनका बहुत-सा इलाका भी मिला। सुखदेवजी के समय में वहा देवीसिंह नामक राजा थे। मुरारिमऊ और डोडियाराम बहुत दिनों से विरोध चला पाता था। इसलिए राजा देवीसिंह ने अपने विरोधी मर्दनसिंह के कवि को श्राश्रय दन में अपनी बड़ाई समझी। इसलिए वे मिश्री को अपने यहाँ लाये और उनके शिष्य हुए। सुखदेवजी पर गजा देवीसिह की भक्ति बढ़ती गई । जब से सुखदेवजी ने कपिला को छोड़ा या तर से उन्होंने अप स्त्री-पुत्र और कुटुंब से कुछ भी संबंध न रक्सा या । किसी से अपने घर का पता तक उन्हाने न बतलाया था। परंतु
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