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पञ्चम सर्ग

कब शिशिर निशा के शीत को शीत जाना।
थर थर कॅपती थी औ लिये अक मे थी।
यदि सुखित न यो भी देखती लाल को थी।
सव रजनि खडे औ घूमते ही विताती ॥५९।।

निज सुख अपने मै ध्यान मे भी न लाई।
प्रिय सुत सुख ही से मै सुखी हूँ कहाती ।
मुख तक कुम्हलाया नाथ मैने न देखा।
अहह दुखित कैसे लाडिले को ललूँगी ॥६०।।

यह समझ रही हूँ और हूँ जानती ही।
हृदय धन तुमारा भी यही लाडिला है।
पर विवश हुई हूँ जी नहीं मानता है।
यह विनय इसीसे नाथ मैने सुनाई ॥६१॥

अब अधिक कहूँगी आपसे और क्या मै।
अनुचित मुझसे है नाथ होता बड़ा ही।
निज युग कर जोडे ईश से हूँ मनाती।
सकुशल गृह लौटे आप ले लाडिलो को ।।६२।।

मन्दाक्रान्ता छन्द
सारी बाते प्रति दुखभरी नन्द-अर्द्धाङ्गिनी की।
लोगो को थी व्यथित करती औ महा कष्ट देती।
ऐसा रोई सकल-जनता खो वची धीरता को ।
भू मे व्यापी विपुल जिससे शोक उच्छ्वासमात्रा ॥६३॥

आविर्भता गगन-तल मे हो रही है निराशा ।
आशाओं मे प्रकट दुख की मूर्तियाँ हो रही है।
ऐसा जी मे ब्रज-दुख-दशा देख के था समाता।
भू-छिद्रो से विपुल करुणा-धार है फूटती सी ॥६४॥