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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१३४

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षष्ठ सर्ग

कालिन्दी के तट पर घने रम्य उद्यानवाला ।
ऊँचे ऊँचे धवल-गृह की पक्तियों से प्रशोभी ।
जो है न्यारा नगर मथुरा प्राणप्यारा वहीं है ।
मेरा सूना सदन तज के तू वहाँ शीघ्र ही जा ॥३६।।

ज्यो ही मेरा भवन तज तू आल्प आगे बढ़ेगी ।
शोभावाली सुखद कितनी मंजु कुंज मिलेगी ।
प्यारी छाया मृदुल स्वर से मोह लेगी तुझे वे ।
तो भी मेरा दुग्य लस वहाँ जा न विश्राम लेना ॥३७॥

थोड़ा आगे सरस ख का धाम सत्पुष्पवाला ।
अच्छे अच्छे बहु द्रुम लतावान सौन्दर्ग्यशाली ।
प्यारा वृन्दाविपिन मन को मुग्धकारी मिलेगा ।
आना जाना इस विपिन से मुह्यमाना न होना ॥३८॥

जाते जाते अगर पथ में छान्त कोई दिखावे ।
तो जा के सन्निकट उसकी छान्तियों को मिटाना ।
धीरे धीरे परम करके गात उत्ताप खोना ।
सद्गधो से अमित जन को हर्पितो मा बनाना ॥३९।।

सलमा हो सुखद जल के श्रान्तिहारी कणों से ।
ले के नाना कुसुम कुल का गध आमोदकारी ।
निर्धली हो गमन करना उद्धता भी न होना ।
आते जाते पथिक जिससे पथ मे शान्ति पावे ॥४०॥

लज्जा शीला पथिक महिला जो कहीं दृष्टि आये ।
होने देना विकृत - वसना तो न तू सुन्दरी को ।
जो थोडी भी श्रमित वह हो गोद ले श्रान्ति खोना ।
होठो की औ कमल-मुख की म्लानताये मिटाना ।।४।।