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प्रियप्रवास

मृद किशलय ऐसा पंकजो के दलो सा ।
वह नवल सलोने गात का तात मेरा ।
इन सब पवि ऐसे देह के दानवो का ।
कब कर सकता था नाश कल्पान्त मे भी ।।२९।।

पर हृदय हमारा ही हमे है बताता ।
सब शुभ - फल पाती हूँ किसी पुण्य ही का ।
वह परम अनूठा पुण्य ही पापनाशी ।
इस कुसमय मे है क्यो नही काम आता ॥३०।।

प्रिय - सुअन हमारा क्यो नही गेह आया ।
वर नगर छटाये देख के क्या लुभाया? ।
वह कुटिल जनो के जाल में जा पड़ा है ।
प्रियतस! उसको या राज्य का भोग भाया ।।३१।।

मधुर वचन से औ भक्ति भावादिको से ।
अनुनय विनयो से प्यार की उक्तियो से ।
सब मधुपुर - वासी बुद्धिशाली जनो ने ।
अतिशय अपनाया क्या ब्रजाभूषणो को ? ॥३२॥

बहु विभव वहाँ का देख के श्याम भूला ।
वह विलम गया या वृन्द मे बालको के ।
फॅस कर जिस मे हा! लाल छूटा न मेरा ।
सुफलक - सुत ने क्या जाल कोई विछाया ॥३३॥

परम शिथिल हो के पंथ की क्लान्तियो से ।
यह ठहर गया है क्या किसी वाटिका मे ।
प्रियतम! तुम से या दूसरो से जुदा हो ।
वह भटक रहा है क्या कहीं मार्ग ही में ।।३४।।