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प्रियप्रवास

विपुल धन अनेकों रत्न हो साथ लाये।
प्रियतम! बतला दो लाल मेरा कहाँ है।
अगणित अनचाहे रत्न ले क्या करूँगी।
मम परम अनूठा - लाल ही नाथ ला दो ॥४१॥

उस वर - धन को मैं मॉगती चाहती हूँ।
उपचित जिससे है वंश की वेलि होती ।
सकल जगत प्राणी मात्र का बीज जो है।
भव - विभव जिसे खो है वृथा 'जात होता ॥४२॥

इन अरुण प्रभा के रंग के पाहनो की ।
प्रियतम! घर मेरे कौन सी न्यूनता है।
प्रति पल उर मे है लालसा वद्धमाना।
उस परम निराले लाल के लाभ ही की ॥४३॥

युग हग जिससे है स्वर्ग सी ज्योति पाते।
उर तिमिर भगाता जो प्रभापुंज से है।
कल द्युति जिसकी है चित्त उत्ताप खोती।
वह अनुपम हीरा नाथ मैं चाहती हूँ ॥४४॥

कटि - पट लख पीले रत्न दूंगी लुटा मै ।
तन पर सब नीले रत्न को वार दूंगी।
सुत - मुख - छवि न्यारी आज जो देख पाऊँ।
बहु अपर अनूठे रल भी बॉट दूंगी ॥४५॥

धन विभव सहस्रो रत्न । सतान देखे।
रज कण सम हैं औ तुच्छ हैं वे तृणो से।
पति इन , सब को त्यो पुत्र को त्याग लाये।
मणि-नाण तज लावे गेह ज्यो . कॉच कोई॥४६॥