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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१८८

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नवम सर्ग

अतीव - उत्कण्ठित ग्वालबाल हो ।
स - वेग जाते रथ के समीप थे ।
परन्तु होते अति ही मलीन थे ।
न देखते थे जब वे मुकुन्द को ॥११४।।

अनेक गाये तृण त्याग दौड़ती ।
सवत्स जाती वर - यान पास थी ।
परन्तु पाती जब थी न श्याम को ।
विषादिता हो पड़ती नितान्त थी ॥११५।।

अनेक - गायो बहु - गोप - बाल की ।
विलोक ऐसी करुणामयी - दशा ।
बड़े - सुधी - ऊधव चित्त मध्य भी ।
स - खेद थी अंकुरिता अधीरता ।।११६॥

समीप ज्यो ज्यो हरि - बंधु यान के ।
संगोष्ठ था गोकुल ग्राम आ रहा ।
उन्हें दिखाता निज - गूढ़ रूप था ।
विषाद त्यो त्यो बहु - मूर्ति-मन्त हो ॥११७।।

दिनान्त था थे दिननाथ डूबते ।
स - धेनु आते गृह ग्वाल - वाल थे ।
दिगन्त मे गोरज थी विराजिता ।
विषाण नाना बजते स - वेणु थे ॥११८।।

खड़े हुए थे पथ गोप देखते ।
स्वकीय - नाना - पशु-वृन्द का कही ।
कहीं उन्हे थे गृह - मध्य बाँधते ।
बुला बुला प्यार उपेत कंठ से ॥११९।।