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दशम सर्ग

कर-निकर सुधा से सिक्त राका शशी के ।
प्रतपित कितने ही लोक को है बनाते ।
विधि-वश दुख-दाई काल के कौशलो से ।
कलुषित बनती है स्वच्छ - पीयूष - धारा ॥२२॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
मेरे प्यारे स - कुशल सुखी और सानन्द तो है ।
कोई चिन्ता मलिन उनको तो नहीं है बनाती ? ।
ऊधो छाती वदन पर है म्लानता भी नहीं,तो ? ।
हो जाती है हृदयतल मे तो नहीं वेदनाये ? ॥२३॥

मीठे - मेवे मृदुल नवनी और पक्वान्न नाना ।
उत्कण्ठा के सहित सुत को कौन होगी खिलाती ।
प्रातः पीता सु - पय कजरी गाय का चाव से था ।
हा! पाता है न अब उसको प्राण - प्यारा हमारा ॥२४॥

संकोची है अति सरल है धीर है लाल मेरा ।
होती लज्जा अमित उसको मॉगने मे सदा थी ।
जैसे ले के स - रुचि सत को अंक मे मै खिलाती ।
हा । वैसे ही अव नित खिला कौन माता सकेगी ॥२५॥

मै थी सारा - दिवस मुख को देखते ही बिताती ।
हो जाती थी व्यथित उसको म्लान जो देखती थी ।
हा। ऐसे ही अब वदन को देखती कौन होगी ।
ऊधो माता - सदृश ममता अन्य की है न होती ॥२६॥

खाने पीने शयन करने आदि की एक - बेला ।
जो जाती थी कुछ टल कसी तो बड़ा खेद होता ।
ऊधो ऐसी दुखित उसके हेतु क्यों अन्य होगी ।
माता की सी अवनितल मे है अ- माता न होती ॥२७॥