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दशम सर्ग

चिता - रूपी मलिन निशि की कौमुदी है अनूठी।
मेरी जैसी मृतक बनती हेतु संजीवनी है।
नाना - पीड़ा मथित - मन के अर्थ है शांति-धारा।
आशा मेरे हृदय - मरु की मंजु - मंदाकिनी है ।।८२।।

ऐसी आशा सफल जिससे हो सके शांति पाऊँ।
ऊधो मेरी सब - दुख - हरी-युक्ति-न्यारी वही है।
प्राणाधारा अवनि - तल में है यही एक श्राशा।
मैं देखूगी पुनरपि वही श्यामली मूर्ति ऑखो ।।८३॥

पीड़ा होती अधिकतर है बोध देते जभी हो।
सदेशो से व्यथित चित है और भी दग्ध होता।
जैसे प्यारा - वदन सुत का देख पाऊँ पुन मै।
ऊधो हो के सदय मुझको यत्न वे ही बता दो ॥८४॥

प्यारे - ऊधो कब तक तुम्हें वेदनाये सुनाऊँ।
मैं होती हूँ विरत यह हूँ किन्तु तो भी बताती।
जो टूटेगी कुँवर - वर के लौटने की सु - आशा।
तो जावेगा उजड़ व्रज औ मै न जीती बनूँगी ।।८५।।

सारी बाते श्रवण करके स्वीय - अर्धागिनी की।
धीरे बोले व्रज - अवनि के नाथ उद्विग्न हो के।
जैसी मेरे हृदय - तल मे वेदना हो रही है।
ऊधो कैसे कथन उसको मैं करूँ क्यो बताऊँ ।।८६।।

छाया भू मे निविड़ - तम था रात्रि थी अर्द्ध बीती।
ऐसे बेले भ्रम - वश गया भानुजा के किनारे ।
जैसे पैठा तरल - जल मे स्नान की कामना से ।
वैसे ही मै तरणि - तनया - धार के मध्य डूवा ॥८७||