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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२१८

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एकादश सर्ग

मुकुन्द का है हित चित्त मे भरा ।
पगा हुआ है प्रति - रोम प्रेम मे ।
भलाइयाँ है उनकी बड़ी बड़ी ।
भला उन्हे क्यो व्रज भूल जायगा ॥५३॥

जहाँ रहे श्याम सदा सुखी रहे ।
न भूल जावे निज - तात - मात को ।
कभी कभी आ मुख-मंजु को दिखा ।
रहे जिलाते ब्रज - प्राणि पुंज को ॥५४॥

द्रुतविलम्बित छन्द
निज मनोहर भाषण वृद्ध ने ।
जब समाप्त किया बहु - मुग्ध हो ।
अपर एक प्रतिष्ठित - गोप यो ।
तब लगा कहने सु-गुणावली ।।५५।।

वंशस्थ छन्द
निदाघ का काल महा - दुरन्त था ।
भयावनी थी रवि - रश्मि हो गयी ।
तवा समा थी तपती वसुंधरा ।
स्फुलिंग- बर्षारत तप्त व्योम था ॥५६।।

प्रदीप्त थी अग्नि हुई दिगन्त मे ।
ज्वलन्त था आतप ज्वाल - माल-सा ।
पतंग की देख महा - प्रचण्डता ।
प्रकम्पितो पादप - पुंज - पंक्ति थी ॥५७॥

रजाक्त आकाश दिगन्त को बना ।
असंख्य वृक्षावलि मर्दनोद्यता ।
मुहुर्मुहु. उद्धत हो निनादिता ।
प्रवाहिता थी . पवनाति - भीषणा ।।५८।।