पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२२४

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एकादश सर्ग

अत न है और विलम्ब मैं माना ।
प्रवृत्त हो शीघ्र स्व - कार्य मे लगो ।
स - धेनु के जो न इन्हे वचा सके ।
बनी रहेगी · अपकीर्ति तो सदा ।।८९।‌।

ब्रजेन्दु ने यद्यपि तीव्र - शब्द मे ।
किया समुत्तेजित गोप - वृन्द को ।
तथापि साथी उनके स्व - कार्य मे ।
न हो सके लग्न यथार्थ - रीति से ॥९०॥

निदाघ के भीषण उग्र - ताप से ।
स्व-धैर्य थे वे अधिकांश खो चुके ।
रहे - सहे साहस को दवाग्नि ने ।
किया समुन्मूलन सर्व - भॉति था ।९१।।

असह्य होती उनको अतीव थी ।
कराल - ज्वाला तन- दग्ध-कारिणी ।
विपत्ति से संकुल उक्त - पंथ भी ।
उन्हे बनाता भय - भीत भूरिश ।।९२।‌।

अतः हुए लोग नितान्त भ्रान्त थे ।
विलोप होती सुधि थी शनै शनै ।
ब्रजांगना-वल्लभ के निदेश से ।
स - चेष्ट होते भर वे क्षणेक थे ।।९३।।

स्व - साथियो की यह देख दुर्दशा ।
प्रचंड - दावानल मे प्रवीर से ।
स्वयं धॅसे श्याम दुरन्त - वेग से ।
चमत्कृता सी वन - भूमि को वना ।।९४॥