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द्वादश सर्ग

मन्दाक्रान्ता छन्द
उधो को यों स - दुख जब थे गोप बाते सुनाते ।
आभीरो का यक - दल नया वॉ उसी-काल आया ।
नाना - बाते विलख उसने भी कही खिन्न हो हो ।
पीछे प्यारा - सुयश स्वर से श्याम का यो सुनाया ॥१।।

द्रुतविलम्बित छन्द
सरस - सुन्दर - सावन - मास था ।
घन रहे नभ मे घिर - घूमते ।
विलसती बहुधा जिनमे रही ।
छविवती - उड़ती - बक - मालिका ।।२।।

घहरता गिरि - सानु समीप था ।
बरसता छिति - छु नव- वारि था ।
घन कभी रवि- अंतिम - अंशु ले ।
गगन मे रचता बहु · चित्र था ।।३।।

नव - प्रभा परमोज्वल - लीक सी ।
गति - मति कुटिला- फणिनी - समा ।
दमकती दुरती घन - अंक मे ।
विपुल केलि - कला खनि दामिनी ॥४॥

विविध - रूप धरे नभ मे कभी ।
विहरता वर - वारिद - व्यूह था ।
वह कभी करता रस सेक था ।
बन सके जिससे सरसा - रसा ॥५॥