पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२३३

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प्रियप्रवास

पर विलोक तमिस्र - प्रगाढ़ता ।
तड़ित - पात प्रभंजन - भीमता ।
सलिल - प्लावन वर्षण - वारि का ।
विफल थी बनती सब-मंत्रणा ॥४२॥

इस लिये फिर पंकज - नेत्र ने ।
यह स - ओज कहा जन - वृन्द से ।
रह अचेष्टित जीवन त्याग से ।
मरण है अति - चारु सचेष्ट हो ॥४३॥

विपद - संकुल विश्व - प्रपंच है ।
बहु - छिपा भवितव्य रहस्य है ।
प्रति - घटी पल है भय प्राण का ।
शिथिलता इस हेतु अ-श्रेय है ॥४४॥

विपद से वर, - वीर - समान जो ।
वमर - अर्थ समुद्यत हो सका ।
विजय - भूति उसे सब काल ही ।
वरण है करती सु - प्रसन्न हो ॥४५॥

पर विपत्ति विलोक स - शंक हो ।
शिथिल जो करता पग-हस्त है ।
अवनि मे अवमानित शीघ्र हो ।
कवल - है बनता वह काल का ॥४६॥

कब कहाँ न हुई प्रतिद्वंदिता ।
जब उपस्थित संकट - काल हो ।
उचित - यत्न स - धैर्य विधेय है ।
उस घड़ी सब - मानव - मात्र को ॥४७॥