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द्वादश सर्ग

वास्थ छन्द
समाप्त ज्योही इस यूथ ने किया ।
अतीव - प्यारे अपने प्रसंग को ।
लगा सुनाने उस, काल ही उन्हे ।
स्वकीय बाते फिर अन्य गोप यो ।।७२।।

वसन्ततिलका छन्द
वाते वड़ी - मधुर औ अति ही मनोज्ञा ।
नाना मनोरम रहस्य - मयी अनूठी ।
जो है प्रसूत भवदीय मुखाज द्वारा ।
हैं वांछनीय वह, सर्व सुखच्छुको की ।।७३‌।

सौभाग्य है व्यथित - गोकुल के जनों का ।
जो पाद - पंकज यहाँ भवदीय आया ।
है भाग्य की कुटिलता वचनोपयोगी ।
होता यथोचित नहीं यदि कार्यकारी ॥७४॥

प्राय. विचार उठता उर - मध्य होगा ।
ए क्यो नही वचन है सुनते हितो के ।
है मुख्य - हेतु इसका न कदापि अन्य ।
लौ एक श्याम - धन की ब्रज को लगी है ।।७५।।

न्यारी - छटा निरखना हगे चाहते हैं।
है कान को सु - यश भी प्रिय श्याम ही का।
गा के सदा सु - गुण है रसना अघाती।
सर्वत्र रोम तक में हरि ही रमा है ।।७६।‌।

जो है प्रवंचित कभी हग - कर्ण होते ।
तो गान है सु-गुण को करती रसज्ञा ।
हो हो प्रमत्त ब्रज - लोग इसी लिये ही ।
गा श्याम का सुगुण बासर है बिताते ॥७७॥