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प्रियप्रवास

भू मे सदा मनुज है बहु - मान पात ।
राज्याधिकार अथवा धन - द्रव्य - द्वारा ।
होता परन्तु वह पूजित विश्व मे है ।
निस्वार्थ भूत - हित औ कर लोक - सेवा ॥९०॥

थोड़ी अभी यदिच है उनकी अवस्था ।
तो भी नितान्त - रत वे शुभ - कर्म मे है ।
ऐसा विलोक वर - बोध स्वभाव से ही ।
होता सु - सिद्ध यह है वह है महात्मा ।।९१।।

विद्या सु - संगति समस्त-सु - नीति शिक्षा ।
ये तो विकास भर की अधिकारिणी है ।
अच्छा - बुरा मलिन - दिव्य स्वभाव भू मे ।
पाता निसर्ग कर से नर सर्वदा है ।।९२॥

ऐसे सु - बोध मतिमान कृपालु ज्ञानी ।
जो आज भी न मथुरा - तज गेह आये ।
तो वे न भूल ब्रज - भूतल को गये है ।
है अन्य - हेतु इसका अति - गूढ़ कोई ।।९३।।

पूरी नही कर सके उचिताभिलाषा ।
नाना महान जन भी इस मेदिनी मे ।
हो के निरस्त बहुधा नृप - नीतियो से ।
लोकोपकार - व्रत मे अवलोक बाधा ।।९४॥

जी मे यही समझ सोच-विमूढ़-सा हो ।
मै क्या कहूँ न यह है मुझको जनाता ।
हॉ, एक ही विनय हूँ करता स - आशा ।
कोई सु - युक्ति ब्रज के हित की करे वे ॥९५।।