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त्रयोदश सर्ग

विलोकते ही उसको वराह की ।
विलोप होती वर - वीरता रही ।
अधीर हो के बनता अ - शक्त था ।
वड़ा - बली वज्र - शरीर केशरी ॥४२॥

असह्य होती तरु - वृन्द को सदा ।
विपाक्त - सॉसे दल दग्ध - कारिणी ।
विचूर्ण होती बहुशः शिला रही ।
कठोर - उद्वन्धन - सर्प - गात्र से ॥४३।।

अनेक कीड़े खग औ मृगादि भी ।
विदग्ध होते नित थे पतंग से ।
भयंकरी प्राणि - समूह - ध्वसिनी ।
महादुरात्मा अहि - कोप - वह्नि थी ।।४४।।

अगम्य कान्तार गिरीन्द्र खोह मे ।
निवास प्राय. करता भुजंग था ।
परन्तु आता वह था कभी कभी ।
यहाँ बुभुक्षा - वश उग्र - वेग से ॥४५।।

विराजता सम्मुख जो सु - वृक्ष है ।
बड़े - अनूठे जिसके प्रसून है ।
प्रफुल्ल बैठे दिवसेक श्याम थे ।
तले इसी पादप के स - मण्डली ॥४६॥

दिनेश ऊँचा वर - व्योम मध्य हो ।
वनस्थली को करता प्रदीप्त था ।
इतस्ततः थे बहु गोप घूमते ।
असंख्य - गाये चरती समोद थी ॥४७।।
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