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चतुर्दश सर्ग

श्यामा - बाते श्रवण कर के बालिका एक रोई ।
रोते - रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनो ।
ज्यो ज्यो लज्जा - विवश वह थी रोकती वारि-धारा ।
त्यो त्यो आँसू अधिकतर थे लोचनो मध्य आते ॥५॥

ऐसा रोता निरख उसको एक मर्मज्ञ बोली ।
यो रोवेगी भगिनि यदि तू बात कैसे बनेगी ।
कैसे तेरे युगल - हग ए ज्योति - शाली रहेंगे ।
तू देखेगी वह छविमयी - श्यामली - मूर्ति कैसे ॥६॥

जो यो ही तू बहु - व्यथित हो दग्ध होती रहेगी ।
तेरे सूखे - कृशित - तन मे प्राण कैसे रहेगे ।
जी से प्यारा - मुदित - मुखड़ा जो न तू देख लेगी ।
तो वे होगे, सुखित न कभी स्वर्ग मे भी सिधा के ॥७॥

मर्मज्ञा का कथन सुन के कामिनी एक बोली ।
तू रोने दे अयि मम सखी खेदिता - बालिका को ।
जो बालाये विरह - दव मे दग्धिता हो रही है ।
ऑखो का ही उदक उनकी शान्ति की औषधी है ॥ ८॥
 
वाष्प - द्वारा बहु - विध - दुखो वर्द्धिता -वेदना के ।
बालाओ का हृदय - नभ जो है समाच्छन्न होता ।
तो निर्द्धता तनिक उसकी म्लानता है न होती ।
पर्जन्यो सा न यदि बरसे वारि हो, वे ढ्ढगो से ॥९॥

प्यारी बातें श्रवण जिसने की किसी काल में भी ।
न्यारा - प्यारा - वदन जिसने था कभी देख पाया ।
वे होती हैं बहु - व्यथित जो श्याम है याद आते ।
क्यो रोवेगी न वह जिसके जिवनाधार वे हैं ॥१०॥