पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चतुर्दश सर्ग

हाथों मे जो प्रिय - कुँवर के न्यस्त हो कार्य कोई ।
पीड़ाकारी सकल - कुल का जाति का बांधवों का ।
तो हो के भी दुखित उसको चे सुखी हो करेगे ।
जो देखेगे निहित उसमे लोक का लाभ' कोई ॥२९॥

अच्छे - अच्छे वहु - फलद औ सर्व - लोकोपकारी ।
कार्यों की है अवलि अधुना सामने लोचनो के ।
पूरे - पूरे निरत उनमे सर्वदा है। बिहारी ।
जी से प्यारी ब्रज - अवनि मे है इसीसे न आते ॥३०॥

हो जावेगी बहु - दुखद जो स्वल्प शैथिल्य द्वारा ।
जो देवेगी सु - फल मति के साथ सम्पन्न हो के ।
ऐसी नाना- परम-जटिला राज की नीतियाँ भी ।
वाधाकारी कुँवर चित की वृत्ति मे हो रही हैं ।।३१।।

तो भी मैं हूँ न यह कहता नन्द के प्राण - प्यारे ।
आवेगे ही न अब ब्रज मे औ उसे भूल देगे ।
जो है प्यारा परम उनका चाहते वे जिसे हैं ।
निर्मोही हो अहह उसको श्याम कैसे तजेंगे ॥३२॥

हाँ! भावी है परम - प्रवला दैव - इच्छा बली है ।
होते होते जगत कितने काम ही हैं न होते ।
जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी - मध्य आये ।
तो थोड़ा भी हृदय - वल को, गोपियो ! खो न देना ॥३३॥

जो संतप्ता - सलिल - नयना - बालिकाये कई हैं ।
ऐ प्राचीना - तरल - हृदया- गोपियो. स्नेह-द्वारा ।
शिक्षा देना समुचित इन्हे कार्य होगा तुमारा ।
होने पावे न वह जिससे मोह - माया - निमग्ना ।।३४।।