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चतुर्दश सर्ग

हो जाते है भ्रमित जिसमे भूरि - ज्ञानी - मनीषी ।
कैसे होगा, सुगम - पथ सो मंद-धी नारियो को ।
छोटे - छोटे सरित - सर मे डूबती जो तरी है ।
सो भू - व्यापी सलिल - निधि के मध्य कैसे तिरेगी ॥४१॥

वे त्यागेगी सकल - सुख औ स्वार्थ - सारा तजेंगी ।
औ रक्खेगी निज- हृदय मे वासना भी न कोई ।
ज्ञानी- ऊधो जतन इतनी बात ही का बता दो ।
कैसे त्यागे हृदय - धन को प्रेमिका - गोपिकाये ॥४२॥

भोगों को औ भुवि - विभव को लोक की लालसा को ।
माता- भ्राता स्वप्रिय - जन को बन्धु को बांधवो को ।
वे भूलेंगी स्व - तन - मन को स्वर्ग की सम्पदा को ।
हा! भूलेगी जलद - तन की श्यामली मूर्ति कैसे ॥४३॥

जो प्यारा है अखिल - ब्रज के प्राणियो का बड़ा ही ।
रोमो की भी अवलि जिसके रंग ही मे रॅगी है ।
कोई देही बन अवनि मे भूल कैसे उसे दे ।
जो प्राणो मे हृदय - तल मे लोचनो मे रमा हो ॥४४॥

भूला जाता वह स्वजन है चित्त में जो बसा हो ।
देखी जा के सु - छवि जिसकी लोचनो मे रमी हो ।
कैसे भूले कुँवर जिनमे चित्त ही जा बसा है ।
प्यारी - शोभा निरख जिसकी आप ऑखें रमी है ॥४५॥

कोई ऊधो यदि यह कहे काढ़ दे गोपिकायें ।
प्यारा - न्यारा निज - हृदय तो वे उसे काढ़ देगी ।
हो पावेगा न यह उनसे देह मे प्राण होते ।
उद्योगी हो हृदय - तल से श्याम को काढ़ देवे ॥४६॥