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चतुर्दश सर्ग

पूजायें त्यो विविध - व्रत औ सैकड़ो ही क्रियाये।
सालो की है परम - श्रम से भक्ति - द्वारा उन्होने ।
व्याही जाऊँ कुँवर - वर से एक वांछा यही थी।
सो वांछा है विफल बनती दग्ध वे क्यो न होगी ।।५३।।

जो वे जी से कमल - हग की प्रेमिका हो चुकी है।
भोला - भाला निज-हृदय जो श्याम को दे चुकी है।
जो आँखो मे सु-छवि बसती मोहिनी-मूर्ति की है।
प्रेमोन्मत्ता न तब फिर क्यो वे धरा - मध्य होगी ॥५४॥

नीला प्यारा- जलद जिनके लोचनो मे रमा है।
कैसे होगी अनुरत कभी धूम के पुंज मे वे ।
जो आसत्ता स्व - प्रियवर मे वस्तुतः हो चुकी है।
वे देवेगी हृदय - तल में अन्य को स्थान कैसे ।।५५।।

सोचो उधो यदि रह गई वालिकाये कुमारी।
कैसी होगी ब्रज -अवनि के प्राणियो को व्यथाये।
वे होवेगी दुखित कितनी और कैसी विपन्ना।
हो जावेगे दिवस, उनके कंटकाकीर्ण कैसे । ॥५६।।

सर्वागो मे लहर उठती यौवनाम्भोधि की है।
जो है घोरा परम-प्रबला औ महोछ्वास - शीला।
तोड़े देती प्रबल - तरि जो ज्ञान औ बुद्धि की है।
घातो से है दलित जिसके धैर्य का शैल होता ॥५७॥

ऐसे ओखे - उदक - निधि मे है पड़ी बालिकाये।
झोके से है पवन बहती काल की बामता की।
आवर्त्तों मे तरि - पतित है नौ - धनी है न कोई।
हा! कैसी है विपद कितनी संकटापन्न वे है ।।५८।।