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प्रियप्रवास

भोली-भाली ब्रज-अवनि क्या योग, की रीति जाने ।
कैसे बूझे अ- बुध अबला, ज्ञान - विज्ञान बाते ।
देते क्यो हो कथन कर के बात ऐसी व्यथाये ।
देखूॅ प्यारा वदन जिनसे यत्न ऐसे। बता दो ॥७१।।

न्यारी - क्रीड़ा ब्रज - अवनि में आ पुनः वे करेंगे ।
ऑखे होगी सुखित फिर भी गोप, गोपांगना की ।
वंशी होगी ध्वनित फिर भी कुंज मे काननों मे ।
आवेंगे वे दिवस फिर भी, जो अनूठे बड़े हैं ॥७२॥

श्रेयःकारी सकल ब्रज की है यही एक आशा ।
थोड़ा किम्वा अधिक इससे शान्ति पाता सभी है ।
ऊधो तोड़ो न तुम कृपया ईदृशी चारु आशा ।
क्या पाओगे अवनि ब्रज की जो समुत्सन्न होगी ।।७३॥

देखो सोचो दुखमय - दशा श्याम - माता - पिता की ।
प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको ।
गोपो को औ विकल लख के गोपियो को पसीजो ।
ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को जिला दो ॥७४।।

वसन्ततिलका छन्द
बोली स - शोक अपरा यक गोपिका यो ।
ऊधो अवश्य कृपया ब्रज को जिलाओ ।
जाओ तुरन्त मथुरा करुणा दिखाओ ।
लौटाल श्याम - घन को ब्रज - मध्य लाओ ।।७५।।

अत्यन्त-लोक - प्रिय विश्व-विमुग्ध-कारी ।
जैसा तुम्हे चरित मै अब हूँ, सुनाती ।
ऐसी करो ब्रज लखे फिर कृत्य वैसा ।
लावण्य - धाम फिर दिव्य - कला दिखावे ॥७६।।