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चतुर्दश सर्ग

उत्साहिता विलसिता बहु - मुग्ध - भूता ।
आई विलोक जनता अनुराग - मग्ना ।
की श्याम ने रुचिर - क्रीड़न की व्यवस्था ।
कान्तार मे पुलिन पै तपनांगजा के ॥१०१।।

हो हो विभक्त बहुशः दल मे सबों ने ।
प्रारंभ की विपिन मे कमनीय - क्रीड़ा ।
बाजे बजा अति - मनोहर - कण्ठ से गा ।
उन्मत्त - प्राय बन चित्त - प्रमत्तता से ॥१०२॥

मंजीर नूपुर मनोहर - किंकिणी की ।
फैली मनोज्ञ - ध्वनि मंजुल वाद्य की सी ।
छेड़ी गई फिर स-मोद गई बजाई ।
अत्यन्त कान्त कर से कमनीय - वीणा ।।१०३।।

थापे मृदंग पर जो पड़ती सधी थी ।
वे थीं स - जीव स्वर - सप्तक को बनाती ।
माधुर्य - सार बहु - कौशल से मिला के ।
थीं बाद को श्रुति मनोहरती सिखाती ॥१०४॥

मीठे - मनोरम - स्वरांकित वेणु नाना ।
हो के निनादित विनोदित थे बनाते ।
थी सर्व मे अधिक - मंजुल - मुग्धकारी ।
वंशी महा - मधुर केशव कौशली की ॥१०५॥

हो - हो सुवादित मुकुन्द सदंगुली से ।
कान्तार मे मुरलिका जब गूॅजती थी ।
तो पत्र - पत्र पर था कल - नृत्य होता ।
रागांगना - विधु - मुखी चपलांगिनी का ॥१०६॥