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चतुर्दश सर्ग

हीरा समान बहु - स्वर्ण - विभूषणो में ।
नाना विहंग - रव में पिक काकली सी ।
होती नही मिलित थी अति थी निराली ।
नाना - सुवाद्य - स्वन में हरि - वेणु - ताने ॥११३।।

ज्यो ज्यो हुई अधिकता कल - वादिता की ।
ज्यो ज्यो रही सरसता अभिवृद्धि पाती ।
त्यो त्यो कला विवशता सु-विमुग्धता की ।
होती गई समुदिता उर मे सबो के ॥११४॥

गोपी समेत “अतएव समस्त - ग्वाले ।
भूले स्व - गात - सुधि हो मुरली - रसाई ।
गाना रुका सकल - वाद्य रुके स-वीणा ।
वंशी - विचित्र - स्वर केवल गूंजता था ॥११५।।

होती प्रतीति उर में उस काल यो थी ।
है मंत्र साथ मुरली अभिमंत्रिता सी ।
उन्माद - मोहन - वशीकरणादिको के ।
है मंजु - धाम उसके ऋजु - रंध्र - सातो ॥११६।।

पुत्र - प्रिया - सहित मंजुल - राग गा-गा ।
ला - ला स्वरूप उनकी जन - नेत्र -आगे ।
ले-ले अनेक उर-वेधक - चारु - ताने ।
की श्याम ने परम - मुग्धकरी क्रियाये ॥११७।।

पीछे अचानक रुकी वर- वेणु ताने ।
चावी समेत सबकी सुधि लौट आई ।
आनंद - नादमय कंठ - समूह द्वारा ।
हो-हो पड़ी ध्वनित बार कई दिशाएँ ।।११८।।

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