पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
पंचदश सर्ग

मन्दाक्रान्ता छन्द
छाई प्रातः - सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवो मे ।
कुंजो मे थे भ्रमण करते हो महा - मुग्ध ऊयो ।
आभा - वाले अनुपम इसी काल मे एक वाला ।
भावो - द्वारा - भ्रमित उनको सामने दृष्टि आई ।।१।।

नाना बाते कथन करते देख पुष्पादिको से ।
उन्मत्ता की तरह, करते देख न्यारी - क्रियाये ।
उत्कण्ठा के सहित उसका वे लगे भेद लेने ।
कुजों मे या, विटपचय की ओट मे मौन बैठे ॥२॥

थे बाला के हग - युगल के सामने पुष्प नाना ।
जो हो- हो के विकच, कर मे भानु के सोहते थे ।
शोभा पाता यक कुसुम था लालिमा पा निराली ।
सो यो बोली निकट उसके जा बड़ी ही व्यथा से ॥३॥

आहा कैसी तुझ पर लसी माधुरी है अनूठी ।
तू ने कैसी सरस - सुषमा आज है पुष्प पाई ।
चूमूं चाटू नयन भर मै रुप तेरा विलोकूँ ।
जी होता है हृदय - तल से मै तुझे ले लगा लें ॥४॥