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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३१६

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षोडश सर्ग

वास्थ छन्द
अतीव हो अन्यमना विषादिता ।
विमोचते वारि गारविन्द से ।
समस्त सन्देश सुना ब्रजेश का ।
ब्रजेश्वरी ने उर वज्र सा बना ॥४७॥

पुन' उन्होने अति शान्त - भाव से ।
कभी बहा अश्रु कभी स-धीरता ।
कही स्व - बाते बलवीर - बंधु से ।
दिखा कलत्रोचित-चित्त - उच्चता ॥४८॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
मै हूँ ऊधो पुलकित हुई आपको आज पा के ।
सन्देशो को श्रवण कर के और भी मोदिता है ।
मंदीभूता, उर - तिमिर की ध्वंसिनी ज्ञान आमा ।
उद्दीप्ता हो उचित - गति से उज्ज्वला हो रही है ।।४९।।

मेरे प्यारे, पुरुष, पृथिवी - रत्न औ शान्त धी है ।
सन्देशो मे तदपि उनकी, वेदना, व्यंजिता है ।
मै नारी हूँ, तरल - उर है, प्यार से वचिता हूँ ।
जो होती हूँ विकल, विमना, व्यस्त, वैचित्र्य क्या है ॥५०॥

हो जाती है रजनि मलिना ज्यो कला - नाथ डूबे ।
वाटी शोभा रहित बनती ज्यो वसन्तान्त मे है ।
त्योंही प्यारे विधु - वदन की कान्ति से वचिता हो ।
श्री - होना और मलिन ब्रज की मेदिनी हो गई है ।।५१।।

जैसे प्रायः लहर उठती वारि मे वायु से है ।
त्योही होता चित चलित है कश्चिदावेग - द्वाग ।
उद्वेगो से व्यथित बनना गत स्वाभाविकी है ।
हॉ, ज्ञानी औ विबुध - जन मे मुह्यता है न होती ॥५२॥