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प्रियप्रवास

आशा त्यागी न ब्रज-महि ने हो निराशामयी भी ।
लाखो ऑखें पथ कुँवर का आज भी देखती थी ।
मात्राये थी समधिक हुई शोक दुखादिको की ।
लोहू आता विकल - हग में वारि के स्थान मे था ॥१०॥

कोई प्राणी कब तक भला खिन्न होता रहेगा ।
ढालेगा अश्रु कब तक क्यो थाम टूटा - कलेजा ।
जी को मारे नखत गिन के ऊब के दग्ध हो के ।
कोई होगा बिरत कब लौ विश्व - व्यापी - सुखो से ॥११॥

न्यारी-आभा निलय-किरणें सूर्य की औ शशी की ।
ताराओ से खचित नभ की नीलिमा मेघ - माला ।
पेड़ो की औ ललित - लतिका - वेलियो की छटायें ।
कान्ता - क्रीड़ा सरित सर निझरो के जलो की ॥१२॥

मीठी - ताने मधुर - लहरे गान - वाद्यादिको की ।
प्यारी बोली विहग - कुल की बालको की कलाये ।
सारी - शोभा रुचिर - ऋतु की पर्व की उत्सवो की ।
वैचित्र्यो से बलित धरती विश्व की सम्पदायें ॥१३।।

सतप्तो का, प्रबल - दुख से दग्ध का, दृष्टि आना ।
जो ऑखो मे कुटिलं - जग का चित्र सा खीचते है ।
आख्यानो के सहित सुखदा - सान्त्वना सज्जनो की ।
संतानो की सहज ममता पेट - धन्धे सहस्रो ॥१४॥

है प्राणी के हृदय - तल को फेरते मोह लेते ।
धीरे - धीरे प्रबल - दुख का वेग भी है घटाते ।
नाना भावो सहित अपनी व्यापिनी मुग्धता से ।
वे हैं प्रायः व्यथित - उर की वेदनाये हटाते ।।१५।।