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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/३३४

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सप्तदश सर्ग

गोपी - गोपो जनक - जननी बालिका - बालको के ।
चित्तोन्मादी प्रबल - दुख का वेग भी काल पा के ।
धीरे-धीरे बहुत बदला हो गया न्यून प्रायः ।
तो भी व्यापी ह्रदय - तल मे श्यामली मूर्ति ही थी ॥१६॥

वे गाते तो मधुर - स्वर से श्याम की कीर्ति गाते ।
प्रायः चर्चा समय चलती बात थी श्याम ही की ।
मानी जाती सुतिथि वह थी पर्व औ उत्सवो की ।
थी लीलाये ललित जिनमे राधिका - कान्त ने की ॥१७॥

खो देने मे विरह - जनिता वेदना किल्विषो के ।
ला देने मे व्यथित - उर मे शान्ति भावानुकूल ।
आशा दग्धा जनक - जननी चित्त के बोधने मे ।
की थी चेष्टा अधिक परमा - प्रेमिका राधिका ने ।।१८।।

चिन्ता - प्रस्ता विरह - विधुरा भावना मे निमग्ना ।
जो थी कौमार-व्रत-निरता बालिकाये अनेको ।
वे होती थी बहु - उपकृता नित्य श्री राधिका से ।
घंटो आ के पग - कमल के पास वे बैठती थी ॥१९॥

जो छा जाती गगन-तल के अंक मे मेघ- माला ।
जो केकी हो नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा ।
प्रायः उत्कण्ठ बन रटता पी कहाँ जो पपीहा ।
तो उन्मत्ता - सदृश बन के बालिकाये अनेको ।।२०।।

ये बाते थी स - जल - धन को खिन्न हो हो सुनाती ।
क्यो त हो के परम - प्रिय सा वेदना है बढ़ाता ।
तेरी संज्ञा सलिल - धर है और पर्जन्य भी है ।
ठंढा मेरे हृदय - तल को क्यो नहीं तू बनाता ॥२१॥