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सप्तदश सर्ग

तव ब्रज बनता था मूर्ति उद्विग्नता की ।
प्रति - जन उर मे थी वेदना वृद्धि पाती ।
गृह, पथ, वन, कुंजो मध्य थी दृष्टि आती ।
बहु - विकल उनीदी, ऊवती, बालिकाये ॥२८॥

इन विविध व्यथाओ मध्य डूबे दिनो में ।
अति - सरल - स्वभावा सुन्दरी एक बाला ।
निशि-दिन फिरती थी प्यार से सिक्त हो के ।
गृह, पथ, वहु - बागो कुंज - पुंजो, वनो मे ।।२९।।

वह सहृदयता से ले किसी मूर्छिता को ।
निज अति उपयोगी अंक में यत्न - द्वारा ।
मुख पर उसके थी डालती वारि छींटे ।
वर - व्यजन डुलाती थी कभी तन्मयी हो ॥३०॥

कुवलय - दल बीछे पुष्प औ पल्लवो को ।
निज-कलित करो से थी धरा में बिछाती ।
उस पर यक तप्ता वालिका को सुला के ।
वह निज कर 'से थी लेप ठंढे लगाती ॥३१॥

यदि अति अकुलाती उन्मना - बालिका को ।
वह कह मृदु - बाते वोधती कुंज मे जा ।
वन - वन बिलखाती तो किसी वावली का ।
वह ढिग रह छाया - तुल्य संताप खोती ॥३२।।

यक थल अवनी मे लोटती वंचिता का ।
तन रज यदि छाती से लगा पोंछती थी ।
अपर थल उनीदी मोह - भग्ना किसीको ।
वह शिर सहला के गोद मे थी सुलाती ॥३३॥