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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/७१

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प्रियप्रवास

झलकने पुलिनों पर भी लगी ।
गगन के तल की यह लालिमा ।
मरि सरोवर के जल मे पडी ।
अरुणता अतिही रमणीय थी ॥४॥

अचल के शिखरो पर जा चढ़ी ।
किरण पादप-शीश-विहारिणी ।
तरणि - विम्ब तिरोहित हो चला ।
गगन - मण्डल मध्य शनै: शनै: ॥५॥

ध्वनि-मयी कर के गिरि - कन्दरा ।
कलित-कानन केलि निकुञ्ज को ।
बज उठी मुरली इस काल ही ।
तरणिजा-तट-राजित-कुञ्ज मे ॥६॥

क्वणित मंजु विषाण हुए कई ।
रणित श्रृंग हुए बहु साथ ही ।
फिर समाहित -प्रान्तर - भाग मे ।
सुन पडा स्वर धावित - धेनु का ॥७॥

निमिष मे वन-व्यापित-वीथिका ।
विविध - धेनु - विभूषित हो गई ।
धवल-धूसर-वत्स-समूह भी ।
विलसता जिनके दल साथ था ।।८॥

जब हुए समवेत शनैः शनैः ।
सकल गोप सधेनु समण्डली ।
तब चले ब्रज - भूषण को लिये ।
अति अलकृत-गोकुल-ग्राम को ॥९॥