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प्रथम सर्ग

गगन मंडल में रज छा गई ।
दश - दिशा बहु - शब्दामय हुई ।
विशुद-गोकुल के प्रति - गेह में ।
वह चला बर-स्त्रोत विनोद का ।।१०।।

सकल बाहर घाकृत से रहे ।
सर्दियों - मानव गोकुल - ग्राम के ।
प्रिय दिनान्न विन्नोकन ही पड़ी ।
व्रत-विशपण - दर्शन - लालसा ॥११॥

सुन पड़ा स्वर दरों वन वेग्गु का ।
सकत - ग्राम समुत्सुक हो उठा ।
हृदय - पत्र निनादित हो गया ।
तुरंत ही विनयचित भाव से ‌।।१२।।

बहु युवा युवती गृह - बालिका ।
विपुल -बाला वृद्ध वयस्क भी ।
विवश से निकले नित गेहूं से ।
साहस का दृघ- गोचन के लिए ।।१३।।

इधर गोकुल से जानना पड़ी ।
उमगती पड़ती अति मोद में ।
उधर या पहुँची बलवीर की ।
विपुल - धेनु -विमांहित म्मपति ।।१४।‌