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प्रियप्रवास

सकल - ग्रामवधू कल कठता ।
परम - दारुण - कातरता वनी ।
हृदय की उनकी प्रिय - लालसा ।
विविध - तर्क वितर्क - मयी हुई ।।२३।।

दुख भरी उर - कुत्सित - भावना ।
मथन मानस को करने लगी ।
करुण - प्लावित लोचन कोण मे ।
झलकने जल के कण भी लगे ॥२४॥

नव - उमंग - मयी पुर - बालिका ।
मलिन और सशकित हो गई ।
अति- प्रफुल्लित वालक - वृन्द का ।
वदन - मण्डल भी कुम्हला गया ।।२५।।

ब्रज - धराधिप तात प्रभात ही ।
कल हमे तज के मथुरा चले ।
असहनीय जहाँ सुनिये वही ।
बस यही चरचा इस काल थी ।।२६।।

सब परस्पर थे कहते यही ।
कसल - नेत्र निमंत्रित क्यो हुए ।
कुछ स्ववन्धु समेत ब्रजेश का ।
गमन ही, सव भॉति यथेष्ट था ।।२७॥

पर निमंत्रित जो प्रिय है हुए ।
कपट भी इसमे कुछ है सही ।
दुरभिसंधि नृशंस - नृपाल कीक्ष।
अव न है व्रज - मण्डल मे छिपी ॥२८॥