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द्वितीय सर्ग
प्रकृति थी जब यो कुपिता महा ।
हरि अदृश्य अचानक हो गये ।
सदन में जिन से ब्रज- भूप के ।
अनि - भवानककन्दन हो उठा ॥४१॥
सकल - गोकुल था या ना दुखी ।
प्रयल - वेग प्रभंजन आदि में ।
अब दशा सुन नन्द - निकेत की ।
परि - समारत सा वह हो गया ॥४२॥
पर व्यतीत हुए द्विवटी टली ।
यह उणावरतीय विटन्चना ।
पवन - वंग रुका नम भी हटा ।
जलय - जाल तिराहिन हा गया ।।४३॥
प्रकृति शान्त हुई पर व्योम में ।
चमकने रवि की फिरण लगी ।
निफट ही नित सुन्दर सत्य के ।
बिलख हसी हरि भी मिले ॥४४॥
प्रति पुगतन - गुण्य ब्रजेश का।
उदय या हम काल स्वयं हुआ ।
पतिन हो खर वायु - प्रकोप में ।
कुसुम कोमल बालक जो बचा ।।४२।।
संकरट - पान प्रजाधिप पास ही ।
पनन अर्जून में नरः गज का ।
पकाना मनापम सच से ।
सब बकासूर एवं बलवीर को ।।४३॥