पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१४१

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प्रिया-प्रकाश भावार्थ-हे रामजी! तुम्हारे शशुओं ने ब्याकुल होकर अन्य पहाडों को भी अत्यल्प समय में भेर सम बना दिया है। उन्र पहाड़ों को (अपने साथ लाये हुए) सारिका, शुक, हंस, पिक कोकिला, कपोत, मृग घोड़ा और वचो सहित हाथियों से भर दिया है । कहीं हार टूटे पड़े हैं, कहीं लाल पीले कपड़े छूटे पड़े हैं, कहीं सुगंध द्रव्य के घड़े कूट गये हैं जिनका द्रव पदार्थ तरहटी तक बह रहा है। प्रति शिखर पर उनक सुंदर राजकुमार देवता से दिखाई देते हैं, और शुफाओं में उनकी सुंदरी स्त्रियां दिखाई देती हैं। (पाश्रम वर्णन) मूल-होम धूम युत बरनिथे, ब्रह्मघोष मुनिबास । सिंहादिक मृग मोर अहि, इभ. शुभ, बैर बिनास ॥१॥ शब्दार्थ-प्रहाघोषवेद पाठ का शब्द । इभ हाथी । शुभ = जहां कल्याण ही है सब प्रकार से। बैरबिनास = स्वाभाविक बैर छूट जाता है। सिंह का मृग और हाथी से, मोर का सप से और इसी प्रकार और भी जीवों का स्वाभाविक बैर जहां नष्ट हो जाता है और पूर्ण शांति रहती है। (यथा) मूल-केशोदास मृगज बछेरू चूर्षे बापिनीन, चाटत सुराभि बाध बालक बदन 1 सिंहन की सदा ऐं. कलभ करनि करि, सिंहन को आसन गबंद को रदन है । फणी के फणनि पर नाचत मुदित मोर, कोष न विरोध जहां मद न मदन है।