पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/१४२

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सातवाँ प्रभाव बानर फिरत डोरे डोरे अंध तापसन, ऋषि को निवास कैथों शिव को सदन है ॥१३॥ शब्दार्थ-बाज बछेरू- भूगों के बच्चे। चू- दूध पीते हैं। सटा-सिंह की गर्दन के बाल । कलभ हाथी का बचा। करनि करि=सूडो करके अर्थात् स॒शे से। बानर अध तापसन डोरे डोरे फिरत धानरगण अधे तपस्थियों को उनके हाथ पकड़े जहाँ वे चाहते हैं लिये लिये फिरते हैं। (नोट)-शिव की समाज में भी नंदी, सिंह, मोर, सर्प, चूहा, गणेश (गजमुख) इत्यादि विरोधी होकर भी मिल जुल कर शांति एवक रहते हैं। इसी प्रकार तप बल से ऋष्याश्रम में भी यही हाल रहता है । (केशव कौमुदी प्रभाव२० छंद नं.४०) भावार्थ-सरल और स्पष्ट है। (सरिता वर्णन) मूल-जलचर हय गय जलज तट यज्ञकुंड मुनिबास । स्नान दान पावन नदी वरनिय केशव दास ॥ १४ ॥ शब्दार्थ- हय = दरियाई घोडा ! गया दरियाई हाथी । तट तट पर यज्ञकुण्ड और मुनिकासों का वर्णन होना उचित है। ( यथा) भूल-ओरछे तौर तरंगिनी बेतवै ताहि तरै रिपु केशव को है। अर्जुन बाहु प्रवाह प्रबोधित रेवा ज्यों राजन की रज मोहै । ज्योति जगै यमुना सी लगै जगलोचन लालित पाप विपोहै । सूर सुता शुभ संगम तुंग तरंग तरंगित गंग सी सोहै ॥१५॥ शब्दार्थ-अर्जुन बाहु प्रबाह प्रबोधित = (१) सहस्त्रार्जुन की सुजाओं से जिसका प्रबाह बढ़ाया गया था (रेवा नदी का)