पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३२०

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प्रिया-प्रकाश उनके पास पास खड़ी हैं, परन्तु भय और भ्रम ने (कि यकायक कृष्ण की यह दशा कैसे हो गई और अन्तिम परिणाम क्या होगा) उन्हें बिमूद कर रखा है-उन्हें नहीं सूझता कि वे क्या करें तूने कोई जादू टोना किया है या अपनी सहज सुबास से ही, तू किसी प्रकार छिपे छिपे कृष्ण के मन में बस गई है, अतः सुन! वे अचेत चित पड़े हैं, इसी लिये मैं तेरे पास आई हूं, नहीं तो तेरे समान गोवरहारी नवला क्या ब्रज में थोड़ी हैं अर्थात् थोड़ी नहीं बहुत हैं। (नोट)-वास्तव में 'गोबरहारी' शब्द ही इस कर्षित की जान है । गोबरहारी= (१) गोबर उठाने वाली। (२) गो-इन्द्रिय, घर = बल से, हारी हरणकर्ता, अर्थात् = नेत्र, कर्ण, नाला, मन इत्यादि इंद्रियों को ज़बरदस्ती अपनी ओर खींचने बाली । थोरी हैं - हैं ही नहीं। (पुनः श्लेष गर्भित ब्याजस्तुति) मूल-जानिये न जाकी माया मोहति मिलेहिं मांझ, एक हाथ पुन्य एक पाप को विचारिये। परदार प्रिय मत्त मातँग सुताभिगामी, निशिचर को सो मुख देखो देह कारिये ॥ आजलौं अजादि राखे बरद बिनोद भावे, एते पै अनाथ अति. केशब निहारिये। राजन के राजा छांडि कीजतु तिलक ताहि, मीषम सों कहा कहौं पुरुष न नारिये ॥ २५॥