पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३४६

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तेरहवां प्रमाव (पुनः) मूल-ऐसी मूरि दिखाउ सखि. जिय जानत सर कोइ । पीठि लगावत जासु रस छाती सीरी होई ॥१८॥ भावार्थ-बालक (पुत्र) जब माता की पीट से लगकर खेलता है, तब माता का हृदय आनंदित होता है, अतः इस पहेली का तात्पर्य है 'पुत्र'। ३४-(परिवृत्तालंकार) मूल-जहां करत कछु औरही उपजि परत कछु और । तास परिवृत जानियो, केशव कवि सिरमौर ॥३॥ (नोट)-अब चीन मत से इसे एक प्रकार का विषादव' अलंकार कहेंगे। (यथा) मृल-हँसि बोलत ही जु हँसैं सब केशव लाज भगावत लोक भग। कछु बात चलावत धैरु चलै, मन आनत ही मनमत्थ जगै । सखि तू जु कहै सु हुती मन मेरेहु जानि यहै न हियो उमगै। हरि त्यों टुकडीठि पसारत ही अँगुरीन पसारन लोक लग॥४॥ शब्दार्थ-रु = बदनामी की चर्चा । अंगुरी पसारना = अंगु- श्तनुमा करना, वदनाम समझ कर उंगली से किसी को निर्दिष्ट करना । त्यो तरफ । टुकतनक। भावार्थ-~-नायिका सखी से कहती है कि हे सखी! जो मैं कृष्ण से हंसकर बोलती हूं तो सब लोग मुझपर हँसते हैं ( निंदा करते हैं ) जो मैं लाज त्याग कर उनको देखती है तो लोग मुझसे भगते हैं (घृणा करते हैं) जो उनसे बोलती है तो