मूल-सगुन पदारथ अर्थ युत, सुबरनमय सुभ साज ।
कंठमाल ज्यों कविप्रिया कंठ करो कविराज ॥ ३ ॥
शब्दार्थ-सगुन = (१) कविता के गुणों सहित (२)
होरा सहित । पदारथ जवाहरात, मणिमाणिक । सुबरन%=
(१) सोना (२) शुभवर्ण । शुभसाज-अच्छी तरह बनायी
हुई । कंठमाल = कंठी । कंठ करो-( कंठ में पहन लो (२)
(ज़बानी याद कर लो)
भावार्थ -यह कबिप्रिया ग्रंथ कंठी के तुल्य है । हे कबिराज
गण इसे कंठ में पहन लो (जवानी याद कर लो ) इसमें
काव्यगुणही ओज माधुर्य और प्रसाद का डोरा है, काच्यार्थ
ही मणिमाणिक हैं और शुभवर्ण ही सुवर्णमय गुरिया हैं और
अच्छी तरह से सजाई गई है ( अच्छी तरतीब से सोने की
गुरियाँ और जवाहरात इसमें गुहे गये हैं)
-चरण धरत चिंता करत, नींद न भावत शोर ।
सुबरण को सोधत फिरत, कबि व्यभिचारी चोर ॥४॥
शब्दार्थ --चरण = (१) पाव (6) छंद का एक पद ! सुख-
रण = (१) सुंदर वर्ण (२) सुन्दर रंगवाली नायिका (३)
सोमा सोधत फिरत = खोजा करता है।
नोट - इस दोहे का अर्थ तीन जनों ( कबि, व्यभिचारी और
चोर ) के पक्ष में लगेगा।
भावार्थ-१-( कवि पक्ष)-कबि छंद के एक एक चरण
गढ़ते समय खूब चितवन करता है और नींद तथा शोर अच्छे
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तीसरा प्रभाव