पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/३९२

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सोरहवां प्रभाव ३७---(चित्रालंकार वर्णन ) मूल-केशव चित्र समुद्र में बूड़त परम विचित्र । ताके बूंदक के कणै बरनत हौं सुनि मित्र ॥ १ ॥ भावार्थ-केशव कहते हैं कि यह चित्रालंकार समुद्रवत है, इसमें बड़ी विचित्र प्रतिभा वाले कवि भी डूब जाते हैं । हे मित्र सुनो, मैं उसे समुद्र की एक बूंद का एक कण मात्र वर्णन करता हूं। मूल--अध, ऊरध बिनु बिंदुयुत, जति, रस हीन, अपार । बघिर, अंध गन अगन के गनिय न नगन विचार ॥२॥ शब्दार्थ-अधविंदु-विसर्ग । ऊरध बिंदु' = अनुस्वार । नगन = नगण्या भावार्थ-केशव कहते हैं कि इन चित्रालंकारों के निर्वाह हेत यदि कहीं कोई अक्षर जो विसर्ग वा अनुस्वार रहित है उसे विसर्ग वा अनुस्वार युत करना पड़े, अथवा यतिभंग, रसहीन, बधिर, अंध, अगण आदि दोष ना पड़े, तो इनका विचार नगण्य समझना चाहिये अर्थात् ये दोष दोष न माने जायेंगे। मूल-केशव चित्र समुद्र में इनके दोष न देख । अक्षर मोटे पातरे ब, क, ज, य, एकै लेख ॥ ३ ॥