पृष्ठ:प्रिया-प्रकाश.pdf/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४४
प्रिया-प्रकाश


अति कोपि के कौन संहार करे। हरि जू हर जू विधि बुद्धि रै ॥४७॥ शब्दार्थ-पैज = प्रतिझा। रैरटै विवेचन)-इस छंद मे प्रथम तीन चरणों में क्रम से बहा विष्णु और हर (महादेव) के गुण कहे, पर नाम बताते समय चौथे चरण में उनके नामों का क्रम भंग कर दिया । चौथा चरण यो होना चाहिये था--"बिधि जू हरिज, हर बुद्धि र । यही क्रमहीन दोष कहलाता है। ७-( कर्णकटु दोष) न नीको लागई, सो कहिये कटुकर्ण । केशवदास कवित्त में, भूलि न ताको बर्ण ॥४॥ भावार्थ-जहां किसी शब्द का प्रयोग सुनने समझने में अच्छा न जंचे, अनुचित जान पड़े। जैस मूल |-~-बारन बन्यो वनाब तन, सुबरन बली विशाल । चढ़िये राज मँगाय कै, मानो राजत काल ॥४९॥ शब्दार्थ -बारन= हाथी । सुबरन= सुन्दर रंगवाला। भावार्थ-हे राजन् ! उस हाथी को मँगाकर सवार हजिये जिसके तनका सुन्दर बनाव है, जो सुन्दर रंगवाला, बलवान और बहुत बड़ा है और काल समान शोभित है। (विवेचन)-इसमें मानो राजत काल' यह कथन अनुचित जचता है, सुनते ही बुरा मालूम होता है। यही 'कर्णकटु' दोष है। ८-(पुनरुक्ति दोष) मूल-एकबार कहिये कछु, बहुरि जु कहिये सोय । अर्थ होय कै शब्द अव, सुनि पुनरुक्ति सुहोय ॥ १० ॥