अति कोपि के कौन संहार करे।
हरि जू हर जू विधि बुद्धि रै ॥४७॥
शब्दार्थ-पैज = प्रतिझा। रैरटै
विवेचन)-इस छंद मे प्रथम तीन चरणों में क्रम से बहा विष्णु
और हर (महादेव) के गुण कहे, पर नाम बताते समय चौथे
चरण में उनके नामों का क्रम भंग कर दिया । चौथा चरण
यो होना चाहिये था--"बिधि जू हरिज, हर बुद्धि र । यही
क्रमहीन दोष कहलाता है।
७-( कर्णकटु दोष)
न नीको लागई, सो कहिये कटुकर्ण ।
केशवदास कवित्त में, भूलि न ताको बर्ण ॥४॥
भावार्थ-जहां किसी शब्द का प्रयोग सुनने समझने में अच्छा
न जंचे, अनुचित जान पड़े। जैस
मूल |-~-बारन बन्यो वनाब तन, सुबरन बली विशाल ।
चढ़िये राज मँगाय कै, मानो राजत काल ॥४९॥
शब्दार्थ -बारन= हाथी । सुबरन= सुन्दर रंगवाला।
भावार्थ-हे राजन् ! उस हाथी को मँगाकर सवार हजिये
जिसके तनका सुन्दर बनाव है, जो सुन्दर रंगवाला, बलवान
और बहुत बड़ा है और काल समान शोभित है।
(विवेचन)-इसमें मानो राजत काल' यह कथन अनुचित जचता
है, सुनते ही बुरा मालूम होता है। यही 'कर्णकटु' दोष है।
८-(पुनरुक्ति दोष)
मूल-एकबार कहिये कछु, बहुरि जु कहिये सोय ।
अर्थ होय कै शब्द अव, सुनि पुनरुक्ति सुहोय ॥ १० ॥
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प्रिया-प्रकाश