मूल-जपा कुसुम, दाडिम कुसुम, किंशुक, कंज, अशोक !
पावक, पल्लव, बौटिका, रग रुचिर सब लोक ॥३२॥
शब्दार्थ-जपा-गुड़हर । किंशुक = पलास पुष्प । वीटिका
बीड़ी (पान की)
मूल -- रातोचंदन, रौद्ररस, क्षत्रिय धर्म, मँजीठ ।
अरुण महावर रुधिर, नख, गेरू संध्या, ईठ ॥ ३२ ॥
शब्दार्थ-अरुण = सूर्य के सारथी। ईठ=( संबोधन में)
हे मित्र।
( नोट ) ये ऊपर गिनाई हुई वस्तुएं लाल रंग की मानी गई हैं।
मूल--फूले पलास बिलासथली बहु.
केशवदास हुलासह न थोरे ।
शेष अशेष मुखानल की अनु.
ज्वाल विशाल चली दिव ओरे ।।
किंशुकश्री शुकतुडन की रुचि राचे रसातल में चित चोरे ।
चुचनि चापि चहूं दिसि डोलत चारु चकोर अँगारन मोरे। ३३
शब्दार्थ-~-अशेश सब ! दिव= ( धुः ) अाकाश । किशुकश्री:
पलास के पुष्प । रसातल = पृथ्वीतल । चुंच चोच ।
भोरे- धोखे में।
भावार्थ-बिलासस्थल में ( उस बन में जहां बिलासस्थान है)
पलास खूब फूले हैं जिन्हे देख कर बहुत हुलास पैदा होता है।
और ऐसा जान पड़ता है मानो शेष जी के समस्त मुखों की
विशाल ज्वालाएँ श्राकाश की ओर जा रही हैं। पलासपुष्प
शुकचोच के समान रंगदार हैं। और इस पृथ्वीतल में सब
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प्रिया-प्रकाश