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पाँचवा प्रभाव


के वित्त को चोराते हैं। और उनको अंगार समझ कर चकोर गण उन्हें चोंच में दबा कर चारो ओर घूमते फिरते है । ५-(धून वर्णन) भूल-काककंठ,खर, मूषिका, गृहगोधा, भनि भूरि । करभ, कपोतनि आदि दै धूम, धूमरी, धूरि ॥ ३४ ॥ शब्दार्थ-काककंठ = कौवे की खरगदहा। सूषिका=सटी (छोटा सुस-चूहिया) गृहगोधा-लिए- कली । करल = ऊंट । धूमरी धूपरी गाय । धूरि= धूल, रज। मूल-राघव की चतुरंग चमू चपि धरि उठी जलहू थल छाई ! मानो प्रताप हुतासन धूम सु केशब दास अकास नऽमाई । मेटि के पंच प्रभूत किधौं विधि रेनुमयी नवरी लि चलाई । दुःख निवेदन को 'भवभार को भूमि किधौं सुरलोक सिधाई। शब्दार्थ जुतासन = ( हुताशन ) असि । नऽमाई =न अमाई - अटती नहीं। पंच प्रास्त = पंचतत्व । भावार्थ-श्रीराम की चतुरंगिलो सेना के पैरों से खुदकर धूरि उड़ी और जल तथा थल पर छा गई । वह ऐसी जान पड़ती थी मानो रामजीके प्रतापानि का धुवाँ है जो उठकर श्राकाशन नहीं समा सकता। अथवा ऐसा जान पड़ता था कि मानो बला पांचो तत्वों को मिला कर रेणुमय नबीन सृष्टि रचना चाहते हैं, या संसारभार का दुःख सुनाने के लिये पृथ्वी स्वयं सुरलोक को जा रही है। ६-(नील वर्णन ) मूलद्ध, बाँस, कुवलय, नलिन, अनिल, ब्योम तृण बाल । मरकतमाण, हयसूरके, नीलवर्ण सैवाल ॥ ३६ ।।