को मिलती है। जिस प्रकार उनके लेख और कविताएँ नेशनल कांग्रेस, देशदशा आदि पर हैं उसी प्रकार त्योहारों, मेलों और उत्सवों पर भी। मिर्जापूर की कजली प्रसिद्ध है। चौधरी साहब ने कजली की एक पुस्तक ही लिख डाली है जो इस पुस्तक में वर्षाविन्दु के अन्तर्गत संग्रहीत है। उस सन्धिकाल के कवियों में ध्यान देने की बात यह है कि वे प्राचीन और नवीन का योग इस ढंग से करते थे कि कहीं से जोड़ नहीं जान पड़ता था, उनके हाथों में पड़कर नवीन भी प्राचीनता का ही एक विकसित रूप जान पड़ता था।
दूसरी बात ध्यान देने की है उनकी सजीवता या जिन्दादिली। आधुनिक साहित्य का वह प्रथम उत्थान कैसा हँसता खेलता सामने आया था। उसमें मौलिकता थी, उमंग थी। भारतेन्दु के सहयोगी लेखकों और कवियों का वह मण्डल किस जोश और जिन्दादिली के साथ कैसी चहल-पहल के बीच अपना काम कर गया।
चौधरी साहब का हृदय कविहृदय था। नूतन परिस्थितियाँ भी मार्मिक मूर्तरूप धारण करके उनकी प्रतिभा में झलकती थीं! जिस परिस्थिति का कथन भारतेन्दु ने यह कह कर किया है:-
अँगरेज-राज सुखसाज सबै अति भारी।
पै धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी॥
और पं० प्रतापनारायण जी ने यह कह कर:-
जहाँ कृषी बाणिज्य शिल्प सेवा सब माहीं।
देसिन के हित कछू तत्त्व कहुँ कैसहुँ नाहीं॥
उसी परिस्थिति की व्यंजना हमारे चौधरी साहब ने अपने भारत सौभाग्य नाटक में सरस्वती और दुर्गा के साथ लक्ष्मी के प्रस्थान समय के वचनों द्वारा बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से की है।
अतीत जीवन की, विशेषतः बाल्य और कुमार अवस्था की स्मृतियाँ, कितनी मधुर होती हैं! उनकी मधुरता का अनुभव प्रत्येक भावुक करता है, कवियों का तो कहना ही क्या? हमारे चौधरी साहब ने अतीत की स्मृति में ही 'जीर्ण जनपद के नाम से एक बहुत बड़ा वर्णनात्मक प्रबन्धकाव्य लिख डाला है। 'जीर्ण जनपद' की 'पूर्वदशा' का वर्णन कवि यों करता है:-
कटवाँसी बँसवारिन को रकबा जहँ मरकत।
बीच बीच कंटकित वृक्ष जाके बठि लरकत॥